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सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतरू सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ।।
अर्थ संजय बोले - हे भरत राजन ! निंद्रा विजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अन्तर्यामी भगवान श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! इन इकट्ठे हुए कुरूवंशियों को देख। व्याख्यागुडा केश का मतलब होता है जो निंद्रा का स्वामी बन जाये यानि जो निंद्रा को जीत चुके हैं, वह निंद्रा ले या ना ले उससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा जिसका निंद्रा पर अधिकार है उनका नाम गुडाकेश है। इन्द्रियों का नाम हृषी होता है जो इन्द्रियों के केस अर्थात् स्वामी है उनको हृषीकेश कहते है। तात्पर्य है कि जो मन बुद्धि, इन्द्रियों को आज्ञा देने वाले हैं, वे ही श्री कृष्ण यहाँ अर्जुन की आज्ञा का पालन करने वाले बन गये हैं। दोनों सेनाओं के बीच जो खाली जगह थी वहां पर श्री कृष्ण ने अर्जुन के श्रेष्ठ रथ को खड़ा कर दिया। जहां सामने पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने रथ को खड़ा करके कहा- ‘हे पार्थ’ इन इकट्ठे हुए कुरूवंशियों  को देख। कुरू पद में धृतराष्ट्र के पुत्र व पाण्डु पुत्र दोनों आ जाते हैं क्योंकि दोनों ही कुरूवंशी है। यह शब्द श्री कृष्ण ने बड़ा सोचकर बोला था कुरूवंशी, भगवान को पता था कि यह शब्द बोलने से अर्जुन के मन में यह भाव आयेगा कि यह तो मेरे अपने हैं। उस भाव से अर्जुन में छिपा मोह जागृत हो जाये। मोह जागृत होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाये जिससे अर्जुन को निमित्त बनाकर कलयुग के जीवों के कल्याण के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके। श्री कृष्ण ने रथ को कुटुम्ब के सामने जानबूझकर खड़ा किया और यह शब्द कहा (इन कुरूवंशियों को देख) अर्जुन का मोह जागृत करने के लिए ही कहा। इसका वर्णन संजय आगे के श्लोकों में करते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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