अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।
अर्जुन बोले
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।
अर्जुन बोले
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।
अर्थ "हे धृतराष्ट्र अब शस्त्र चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय (अन्याय पूर्वक राज्य को धारण करने वाले) राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थित रूप से सामने खड़े हुए देखकर हनुमानध्वज पाण्डुपत्र अर्जुन ने अपना धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान श्री कृष्ण से यह वचन बोले।
अर्जुन बोले - हे सखा दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को आप तब तक खड़ा कीजिए, जब तक मैं युद्ध में खड़े हुए इन युद्ध की इच्छा वालों को देख न लँू कि इस युद्ध रूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।
दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छा वाले जो ये राजा लोग इस सेना में आए हुए हैं। युद्ध करने को उतावले हुए इन सबको मैं देख लूं।" व्याख्याअर्जुन कह रहे हैं मुझको किन-किन के साथ युद्ध करना है यह मैं देख लूं यानि जिससे लड़ना है उसे अच्छे से पहचान लेना युद्ध का पहला नियम है, शत्रु की पहचान युद्ध का पहला नियम है जो शत्रु को ठीक से पहचान पाते हैं वही युद्ध को जीत पाते हैं।
इस लिए युद्ध के क्षण में जितनी शांति चाहिए जीत के लिए उतनी शांति और समय नहीं चाहिए। युद्ध के समय में अर्जुन शत्रुओं को साक्षी बनकर देखना चाहते थे, तब कृष्ण को कहा आप दोनो सेनाओं के मध्य में तब तक रथ को रोके रखें जब तक मैं सब को अच्छे से देख ना लूं।
यहाँ अर्जुन दुर्योधन को दुष्ट बुद्धि कहकर यह बता रहे हैं कि इस दुर्योधन ने हमारा नाश करने के लिए कई बार षड्यंत्र रचे हैं। नियम के अनुसार हम आधे राज्य के अधिकारी हैं इसको यह हड़पना चाहता है। इसलिए यह दुष्टबुद्धि है और ऐसी बुद्धि वालों के भी प्रिय होते हैं। वास्तव में मित्रों का फर्ज होता है कि वह ऐसा काम करे जिससे मित्र का जीवन व अगला जन्म सुधरे। परन्तु यह राजा लोग दुर्योधन की दुष्ट बुद्धि को शुद्ध ना करके उसको बढ़ावा देने आये हैं, युद्ध कराने आये हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन का हित किस बात में है। उसको राज्य भी किस बात का मिलेगा उसका जीवन भी किस बात से सुधरेगा, इन सब बातों का विचार ही नहीं कर रहे। अगर दुर्योधन के मित्र सब राजा लोग उसको यह समझाते कि पाण्डवों को दे दो आधा राज्य बाकी आधा राज्य तुम रखो, इससे दुर्योधन के पास आधा राज्य भी रहता और जीवन भी सुख से जीता व उत्तम लोक में भी जाता।
अर्जुन कह रहे हैं जो राजा लोग दुर्योधन को ना समझा कर खुद युद्ध के लिए उतावले हो रहे हैं देख तो लूँ उनको। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्री कृष्ण ने क्या किया?
इसको संजय आगे के दो श्लोकों में कहते हैं