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पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।
अर्थ "अन्तर्यामी भगवान श्री कृष्ण ने पंचजन्य नामक, धनंजय अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयंकर कर्म करनेवाले भीम ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। हे राजन ! श्रेष्ठ धनुर्धर काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओं वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु, इन सभी ने सब ओर से अलग-अलग अपने-अपने शंख बजाये। और पाण्डव सेना के शंखों के उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए अन्याय पूर्वक राज्य हड़पने वाले दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण कर दिये" व्याख्यासभी राजाओं व महारथियों ने अलग-अलग शंख बजाए। पांडव सेना की शंख ध्वनि इतनी विशाल, गहरी, ऊँची और भयंकर हुई कि उस शब्द (ध्वनि) ने आकाश और पृथ्वी को गुंजा दिया, उस शब्द से अन्याय पूर्वक राज्य को हड़पने वालों की और उनकी सहायता में खड़े राजाओं के हृदय विर्दीण हो गए यानि जो पीड़ा अस्त्र शस्त्र से होती है वैसे ही पीड़ा शंख बजने से हुई। उस शंख ध्वनि ने जो कौरवों की सेना का उत्साह था, बल था उसको कमजोर बना दिया। जिससे पाण्डव सेना का भय उनके मन में उत्पन्न हो गया।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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