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ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।
अर्थ तब श्री कृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी जो सफ़ेद घोड़ों से युक्त दिव्य रथ पे बैठे थे दिव्य शंखनाद किया । व्याख्याकहने का तात्पर्य है कि उस सुन्दर व तेजोमय रथ पर श्री कृष्ण व उनके भक्त अर्जुन के विराजमान होने से रथ की शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था। सफेद घोड़ों से युक्त रथपर माधव का मतलब है ‘मां’ नाम लक्ष्मी का है और ‘धव’ नाम पति का है माधव नाम लक्ष्मीपति का है। पाण्डव नाम अर्जुन का है। अर्जुन सभी पाण्डवों में मुख्य है। भगवान श्री कृष्ण व अर्जुन के हाथों में जो शंख थे वह दिव्य शंख थे उन शंखों को उन्होंने बड़े जोर से बजाया। यहाँ एक शंका होती है कि कौरवों के सेनापति भीष्म थे उनका शंख बजाना ठीक है। लेकिन पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युमन के रहते सबसे पहले कृष्ण ने शंख क्यों बजाया। इसका कारण यह है कि भगवान सारथी बने चाहे महारथी बने उनकी मुख्यता कभी मिट नहीं सकती। वह जिस भी पद पर रहे सदा बड़े ही बने रहेंगे। तभी तो उन्होंने (यादवों ने) बालक श्री कृष्ण के कहने पर इन्द्र पूजा छोड़कर गोवर्धन पर्वत की पूजा शुरू कर दी थी। कहने का सार यह है कि भगवान किसी अवस्था में जिस भी स्थान पर जहाँ कहीं भी रहते हो वहां वह मुख्य ही रहते हैं। इसलिए भगवान ने सबसे पहले शंख बजाया भगवान जहां भी रहते हैं उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है। जैसे भगवान यहाँ सारथी बने हैं, तो उनके कारण वह सारथी पद भी ऊँचा हो गया। ‘‘अब संजय आगे के पाँच श्लोकों में शंखवादन का वर्णन करते है’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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