अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।
अर्थ हमारे संरक्षक भीष्म होते हुए भी हमारी यह सेना पांडवों पे विजय पाने में असमर्थ है परन्तु इन पांडवों की सेना हम पैर विजय पाने में समर्थ है क्योंकि इनके संरक्षक भीम है व्याख्याभीष्म द्वारा रक्षित यह हमारी सेना असमर्थ है। भीम द्वारा रक्षित इनकी ये सेना समर्थ है।
यहाँ एक शंका हो सकती है कि दुर्योधन की सेना के सेनापति पद पर भीष्म है तब उनका नाम लिया है। पाण्डवों की सेना में सेनापति तो धृष्टद्युमन है, लेकिन दुर्योधन यहाँ भीम का नाम ले रहा है। इसका कारण यह है कि दुर्योधन इस समय सेनापतियों की बात नहीं सोच रहा। दोनों सेना की शक्ति के विषय में सोच रहा है कि किस सेना की शक्ति अधिक है।
दुर्योधन पर शुरू से ही भीम की शक्ति का प्रभाव पड़ा हुआ है।
वह पाण्डव सेना के संरक्षक के लिए भीम का नाम लेता है। इससे सिद्ध होता है कि दुर्योधन के मन में भय बैठा हुआ है। वह शुरू में ही कहता है, देखे व्यूह रचना में खड़ी भारी सेना को भीतर में भय होने के कारण ही वह चालाकी से द्रोणाचार्य को खुश करना चाहता था और पाण्डवों के विरूद्ध उकसाना चाहता था। कारण कि दुर्योधन के मन में अधर्म है। अन्याय है, पाप है, पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख शान्ति से नहीं रह सकता। परन्तु जिसके भीतर अपने धर्म का पालन है। उसका बल सच्चा होता है। वह सदा निश्चित और निर्भय रहता है। अपनी मुक्ति चाहने वालेे साधक को अधर्म, अन्याय आदि का त्याग करके एकमात्र प्रभु का आश्रय लेकर अपने धर्म का पालन करना चाहिए।
‘‘अब दुर्योधन पितामह को खुश करने के लिए
अपनी सेना के सभी महारथीयों से कहता है’’