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धृतराष्ट्र बोले

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
अर्थ धृतराष्ट्र संजय से बोले - धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा लिए इकट्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या क्या किया ? व्याख्याधर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र पदों में क्षेत्र शब्द देने में धृतराष्ट्र का अभिप्राय था, कि यह अपने कुरूवंशियों की भूमि है, यह केवल लड़ाई करने की भूमि नहीं, राजा कुरू ने यहाँ तपस्या की थी, अपने पुर्वजों ने जिस क्षेत्र पर तपस्या की उस क्षेत्र को धृतराष्ट्र ने धर्मक्षेत्र शब्द से कहा है और राजा कुरू के राज्य की भूमि होने से उस क्षेत्र को कुरूक्षेत्र कहा, धृतराष्ट्र और पांडु के पुत्र सब एक ही कुल के थे कुरूवंशी। दोनों ही कुरूवंशी होने से कुरूक्षेत्र में दोनों का समान हक था। सम्पूर्ण गीता का ज्ञान धर्म के अन्तर्गत है, धर्म का पालन करने से गीता का पालन हो जाता है और गीता के अनुसार कर्म करने से धर्म का पालन हो जाता है। वहाँ युद्ध की इच्छा वाले:- राजाओं के बार-बार सन्धि का प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधन ने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया, श्री कृष्ण के कहने पर भी दुर्योधन ने स्पष्ट मना कर दिया कि मैं बिना युद्ध के सुई की नोक जितनी जमीन नहीं दूंगा। तब पांडुवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया। इस प्रकार मेरे और पांडु पुत्र-दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए हैं। दोनों सेना में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा ज्यादा थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य प्राप्ति ही था। वह राज्य प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से किसी भी तरह हमें राज्य मिलना चाहिए। ऐसा उसका भाव था। दुर्योधन का पक्ष युद्ध की इच्छा वाला था। पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युद्ध के लिए आये थे। मेरे और पाँडु के पुत्रों ने क्या किया ? पाण्डव धृतराष्ट्र को (अपने पिता के बड़े भाई होने से) पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। लेकिन धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डु पुत्रों में समान भाव नहीं था, उनमें पक्षपात था अपने पुत्रों के प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदि को तो अपना मानते थे पर पाण्डु पुत्रों को अपना नहीं मानते थे। इसलिए उन्होंने कहा मेरे व पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं वही वाणी से बाहर निकलते हैं। धृतराष्ट्र के मन में द्वेत था कि दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि मेरे पुत्र नहीं वह तो पाण्डु के पुत्र हैं। इस भाव के कारण दुर्योधन का भीम को जहर (विष) खिलाकर जल में फेंक देना, लाक्षा गृह को आग लगाकर पाण्डवों को जलाने का प्रयास करना, छल के साथ जुआ खेलना, पांडुवों को खत्म करने के लिए सेना लेकर वन में जाना आदि कार्यों को करने से धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को कभी मना नहीं किया। उनके भीतर यही भाव था कि अगर किसी तरह पाण्डवों का नाश हो जाए तो मेरे पुत्रों का राज्य सुरक्षित रहेगा। धृतराष्ट्र के मन में हलचल होने से लड़ाई पैदा हुई व अर्जुन के मन में होने वाली हलचल से गीता प्रकट हुई। अगर धृतराष्ट्र के मन में द्वेत भाव नहीं होता तो वह संजय से पूछते कि मेरे सभी पुत्रों ने क्या किया कुटुम्ब, कुल, वंश एक होने से धृतराष्ट्र के तो सभी पुत्र ही थे, कौरवों व पाण्डु पुत्रों में फर्क ना समझते, इस द्वेत भाव के कारण ही धृतराष्ट्र को अपने कुल की मृत्यु का दुख भोगना पड़ा।  इससे मनुष्य को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वह अपने परिवार, गाँव, शहर, राज्य व देश में द्वेत भाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं ऐसा भाव न रखे। द्वेत भाव से आपस में प्रेम, स्नेह, भाईचारा नहीं होता कलह होती है। गीता की यह कथा एक अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होती है, धृतराष्ट्र आंख से अंधे थे परन्तु आंख ना होने से कामना, वासना नहीं मिटती, कभी सूरदास ने धृतराष्ट्र का ख्याल कर लिया होता तो उनको अपनी आंखें ना फोड़नी पड़ती, सूरदास ने अपनी आंखें इस लिये फोड़ ली थी कि जब आंख ही नहीं रहेगी, जब आंख ही नहीं देखेंगी तो भीतर वासना भी नहीं उठेगी वासना आंखों से नहीं उठती, वासना तो मन से उठती है, धृतराष्ट्र अंधे हैं लेकिन उनके मन में अपने पुत्रों को राज्य दिलाने की कामना है। धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय ने आगे के श्लोक में कुरूक्षेत्र का विस्तार बताया।
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