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 गीता के प्रमुख श्लोक
अर्थ व्याख्याअध्याय 2 : श्लोक 23-24 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।
अर्थ - शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती। यह आत्मा काटी नहीं जा सकती, यह जलायी नहीं जा सकती, इसे गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखायी भी नहीं जा सकती। कारण कि यह नित्य रहने वाली, सबमें परिपूर्ण अचल, स्थिर स्वभाव वाली और सनातन है।  व्याख्या -  ऐसे ही शस्त्र इसको काट नहीं सकते। जैसे अग्नि हमारे चारों तरफ है दिखाई नहीं देती , ऐसे ही आत्मा सर्वत्र दिशाओं में व्याप्त है। जैसे अग्नि जलाने से खाली आकाश नहीं जलता। ऐसे ही आत्मा को आग जला नहीं सकती। जैसे जल आकाश को गीला नहीं कर सकता और वायु आकाश को सुखा नहीं सकती| क्योंकि यह आत्मा अछेद है, कोई भी शस्त्र से आप आत्मा में छेद नहीं कर सकते यह आत्मा नित्य है अर्थात् अनादीकाल से है अब तक, व हमेशा रहेगा। सर्वव्यापी अचल स्थिर यह आत्मा दसों दिशाओं में व्याप्त है। इसलिए इसको सर्वव्यापी कहा है यह आत्मा अपनी जगह स्थिर है। अचल है। परम अचल है ब्रह्म चल है और यह आत्मा रूपी परम हमेशा से रहने वाला सनातन है।  अध्याय 4 : श्लोक 7-8  यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।  अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।  परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।  धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।  अर्थ - हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ। साधुओं, भक्तों की रक्षा करने के लिए पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भली भाँति स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।
 
व्याख्या - हे भारत! धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि का स्वरूप है, भगवान को चाहने वाले प्रेमी धर्मात्मा, सदाचारी, निर्बल, संतों पर पापी, दुराचारी और असुरी मनुष्यों का अत्याचार बढ़ जाना तथा लोगों में सदगुण विचारों की कमी और दुर्गुण विचारों का अधिक बढ़ जाना। धर्म की हानि अधर्म की वृद्धि होने पर लोगों की प्रवृति अधर्म में हो जाती है। परम प्रभु कहते हैं कि जब पाप बढ़ जाता है तब तब मैं अपने रूप को रचता हूँ। यानि शरीर रूप में लोगों को दिखते हैं लेकिन शरीर रूप में जन्म लेकर भी वह परम कार्य करते हैं। जब जब अधर्म बढ़ता है तब तब परमात्मा नये नये रूप धारण करके आते रहते हैं। कभी राम बनके आते हैं रावण जैसे पापीयों का नाश करने के लिए। कभी परमात्मा कृष्ण बनके आते हैं कभी बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, कभी पैगम्बर, तो कभी नानक, कबीर, जाभोजी जब जब इस पृथ्वी पर जरूरत होती है, तब तब भगवान किसी के घर में जन्म लेकर इस संसार में धर्म की अच्छी प्रकार स्थापना करने आते हैं। आज इस पृथ्वी पर जितने भी अच्छे कर्म (सर्वहित का भला) करने वाले योगी हैं, वह परम प्रभु के मार्ग पर चलते हैं। वह परम का ही कार्य कर रहे हैं। परमात्मा को जब जिस जगह जो कार्य करना होता है, उस जगह परमात्मा एक अच्छे विचार वाले व्यक्ति के भावों में उस कार्य को करने के विचार उत्पन्न कर देते हैं। फिर वह व्यक्ति योग के पथ पर चलता हुआ जो परमात्मा को कार्य करना होता है वह उस योगी से उस कार्य को पूर्ण करवाते है। यानि जब जब प्रभु को धर्म की वृद्धि करनी होती है, तब तब साकार रूप से प्रकट होते हैं। परमात्मा साधु पुरूषों का कल्याण करने के लिए व पाप कर्म करने वाले पापियों का विनाश करने के लिए और धर्म (स्वधर्म) की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए युग-युग में (समय-समय) पर प्रकट हुआ करते हैं।    ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 2 : श्लोक 37  हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।  तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।   अर्थ -  अगर युद्ध में तू मारा जाएगा तो तुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी और अगर तू जीत जाएगा तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा। अतः हे कौन्तेय! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा। व्याख्या - इसी अध्याय के श्लोक नं. 6 में अर्जुन ने कहा कि हम लोगों को इसका भी पता नहीं कि युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वो हमको जीतेंगे। उस बात का जवाब देते हुए भगवान अर्जुन को कह रहे हैं, युद्ध में दो ही काम होंगे। पहला अगर युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग मिलेगा। दूसरा अगर युद्ध में जीत गया तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा। भगवान कह रहे हैं कि तेरे तो दोनों हाथों में लड्डू है। इसलिए हे कुन्ती पुत्र! तू युद्ध का निश्चय कर के (मन, बुद्धि, आत्मा को एक करके) युद्ध के लिए खड़ा हो जा।  ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 2 : श्लोक 47  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।  मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
 
अर्थ - कर्त्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। 
 
व्याख्या - मनुष्य कर्म ही कर सकता है। व्यक्ति को कर्म करने का अधिकार है। कर्मों के फल में तेरा अधिकार नहीं इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य को कर्मों का फल प्राप्त करने में कभी किसी प्रकार का अधिकार नहीं। उसके कौन से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको कौन से जन्म में व किस प्रकार प्राप्त होगा। उसका न तो उसको पता है और न वह समय पर उसको इच्छा अनुसार प्राप्त कर सकता है। मनुष्य चाहता कुछ और है होता कुछ और है। कर्मों के फल का विधान करना विधाता के अधीन है। मनुष्य का उसमें कोई जोर नहीं चलता।  भगवान श्री कृष्ण कहते हैं इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो। अगला जन्म तभी है आपका अगर आप इस जन्म में कर्म करके फल पाने की इच्छा करोगे। आपने फल की इच्छा तो कर ली उस फल की इच्छा को परम प्रभु क्या पता कौन से जन्म में पूरा करें। इच्छा है तो पक्का अगला जन्म होगा अब जैसी इच्छा होगी गर्भ भी उसी अनुसार मिलेगा। इन फल की इच्छा के कारण पता नहीं कितने जन्म लेने पड़ते हैं और इन जन्मों में पाओगे के नहीं, कारण पता नहीं कितनी बार अधोगति में पड़ना पड़ता है। अर्थात पापों की सजा के लिए कितनी बार कुत्ता, गधा, सूअर, जहरीले जीव जन्तु बनना पड़ता है। इसलिए ही तो भगवान कह रहे हैं कर्म के फल का हेतु मत हो अगर फल की इच्छा कि तो हेतु (कारण) अगला जन्म तैयार हो जायेगा। जब आपको कोई किसी प्रकार की इच्छा ही नहीं होगी तो आप पाप भी क्यों करोगे।  अगर संसार से आसक्तियां ही नहीं तो फिर आप पाप भी नहीं करोगे। अगर संसार से आसक्तियां ही नहीं तो फिर आप मोक्ष (कल्याण) को प्राप्त हो जाओगे। अब इस बात को अच्छे से समझे की कर्म किए बगैर ही कोई व्यक्ति सोचे कि फल की इच्छा ही नहीं करनी तो कर्म करने का क्या फायदा, ऐसा ना हो कृष्ण बोले कि तेरी कर्म करने से भी आसक्ति चली जाए। इस ब्रह्म की हर चीज चलायमान है जैसे हवा, पानी, काल, मौसम सांसे आदि हर चीज में गति है। तो मनुष्य को भी जीवन में गतिशील रहना चाहिए। बिना इच्छा किए प्रभु का कर्म समझ कर भगवत मार्ग पर चलना चाहिए।    यह बात कही गई है कि ना तो कर्मों के फल का हेतु बनना चाहिए और न कर्म न करने में ही आसक्त होना चाहिए। यानि कर्मों का त्याग भी नहीं करना चाहिए। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि, तो फिर किस प्रकार कर्म करना चाहिए।    इसलिए भगवान कहते हैं आगे 48 से 72 तक के 24 श्लोक स्थिरता यानि समता के ऊपर ज्ञान दिया गया है। यही वह योग है जो कर्म करते हुए भी संसार के बंधन से नहीं बंधता। इस सम साधना योग से ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, साधक देह त्याग के बाद परम को प्राप्त होता है।  ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 2 : श्लोक 62-63  ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । 
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।
 
अर्थ - विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है, आसक्तियों से काम पैदा होता है। काम में बाधा लगने पर क्रोध पैदा होता है, क्रोध होने पर सम्मोह मूढ़भाव हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट हो जाने पर बुद्धि विवेक का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य का पतन हो जाता है
 
व्याख्या - भगवान के परायण ना होने से, भगवान का चिंतन ना होने से माया के विषयों में चिंतन होता है, कारण कि जीवात्मा के एक तरफ ईश्वर है, दूसरी तरफ संसार। जब ईश्वर का आश्रय छोड़ देता है जीव, तब संसार का आश्रय लेता है, संसार का चिंतन करने से मनुष्य की विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति पैदा होने से मानव उन विषयों का सेवन करता है। विषयों का सेवन चाहे मानसिक हो या शारीरिक उसमें सुख होता है यानि प्रियता आ जाती है।  प्रियता से बार-बार चिंतन होने लगता है, चिंतन से विषयों में राग पैदा हो जाता है, राग पैदा होने से उन विषयों में कामना पैदा हो जाती है कि यह सब मुझे मिले और उस कामना के लोभ में प्राणी कार्य करता है और उन कामनाओं को पूरा करने में बाधा आती है तो मनुष्य में क्रोध आता है। क्रोध पैदा होने पर मूढ भाव हो जाता है-  1. काम में सम्मोह होता है उसमें विवेक शक्ति ढक जाने से मानव काम के वशीभूत होकर न करने लायक कार्य कर बैठता है ।  2. क्रोध में मनुष्य मित्रों और बड़ों को उल्टी-सीधी बातें कह देता है न करने लायक बर्ताव कर देता है  3. लोभ में सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म आदि का विचार नहीं करता।  4. मोह में समभाव नहीं होता पक्षपात पैदा हो जाता है।  इन चारों से सम्मोह होता है अर्थात मूढभाव। मूढ़भाव से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है, यानि मूढ़भाव से मनुष्य की याददाश्त कमजोर हो जाती है, स्मृति भ्रष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है यानि विवेक लुप्त हो जाने से मनुष्य में ज्ञान की शक्ति नहीं रहती और मनुष्य पशु बुद्धि में अपनी स्मृति से गिर जाता है यानि उसका पतन हो जाता है! ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 3 : श्लोक 9   यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। 
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।
  अर्थ - यज्ञ (कर्त्तव्य पालनद्ध के लिए किये जाने वाला कर्मों से अन्य अपने लिए किए जाने वाले कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे कुन्तीनन्दन ! तू आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के लिए ही कर्त्तव्य कर्म कर।
 
व्याख्या - यहाँ भगवान कहते हैं यज्ञ के लिए किए जाने वाला कर्म से इस बात को आप अच्छे से समझें यानि अपने लिए नहीं सर्वहित के लिए किए जाने वाला कर्म यज्ञ होता है, कर्मयोगी वही है जो लोगों के भले का काम करे क्योंकि योगी तो अपना सारा जीवन भगवत स्वरूप मार्ग पर लगा देता है। ऐसे योगी तो सम्पूर्ण जीवन का यज्ञ कर देते हैं यानि लोगों की सेवा में कर्म करना ही यज्ञ करना है। (अन्य कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है) यानि जो कर्मयोगी नहीं है जो अपनी इच्छा की तृप्ति करने के लिए संसार में कर्म करते हैं वह कर्म मनुष्य को जन्म मरण में बांध लेता है। संसार की किसी भी वस्तु व्यक्ति से आसक्तियां ही जीव को आगे से आगे अलग-अलग योनियों में जन्म दिलाती है। इसलिए हे कुन्ती नन्दन आसक्ति रहित होकर तुम कर्म करो। ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 3 : श्लोक 21  यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। 
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
  अर्थ - श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है। दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है। दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।  व्याख्या - श्रेष्ठ पुरूषों का वर्णन किया गया है। जिसके आचरण सदा शास्त्र मर्यादा के अनुकूल ही होते हैं। कोई देखे या ना देखे, इच्छा न रहने के कारण उनमें स्वभाविक ही कर्त्तव्य का पालन होता है। जैसे जंगल में कोई फूल खिला और कुछ समय बाद मुरझा गया और सूख कर गिर गया। उसे किसी ने देखा नहीं फिर भी चारों और अपनी सुगन्ध फैलाकर दुर्गन्ध का नाश किया इसी तरह श्रेष्ठ पुरूष होते हैं।  ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 3 : श्लोक 5  न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। 
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
 
अर्थ - कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। क्योंकि प्रकृति के वश में हुए सब प्राणियों से प्रकृतिगुण कर्म करवा लेते हैं। व्याख्या - बहुत से मनुष्य केवल शरीर से कर्म करने को ही कर्म मानते हैं। पर गीता ने शारीरिक, वाचिक (बोलना) और मानसिक रूप से की गई क्रियाओं को कर्म माना है। मनुष्य की सोच बनी हुई है। जिसके अनुसार व्यापार, नौकरी, खेती, पढ़ाई आदि को ही कर्म मानते हैं। और इनके अतिरिक्त खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना, चलना, चिन्तन करना आदि को कर्म नहीं मानते। इसी कारण कई मनुष्य नौकरी आदि को छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा। स्थूल शरीर की क्रियाएं जैसे नींद, चिन्तन, यह सब क्रियाएं प्रकृति गुण के हिसाब से प्रकृति अपने आप करवा लेती है। जैसे व्यक्ति सो जाता है तब नींद आने के बाद उसको यह पता भी नहीं रहता मैं कौन हूँ मेल हूँ या फिमेल कौन-सी जगह सो रहा हूँ। तब भी मनुष्य का शरीर क्रिया करता रहता है। जैसे धड़कन धड़कना, ब्लड चलना नसों में, सांसे चलना और अपना मन भी नींद में कहाँ-कहाँ के स्वप्न दिखाता है। जागृत अवस्था में जैसे पानी पीना, फ्रैश होना, खाना खाना और खाने की भूख लगने पर खाने की व्यवस्था करना कोई भी मानव, किसी भी अवस्था में (नींद में जागृत में कोई भी स्थान पर सुख-दुःख में कही भी) क्षण मात्र भी कर्म किये बगैर नहीं रह सकता। क्योंकि प्रकृति के गुण सब प्राणियों से कर्म करवा लेती है। कर्म करने में तो आप परतंत्र है। पर इनमें आसक्तियों को रखने व ना रखने में आप स्वतंत्र है।    ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 4 : श्लोक 39  श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। 
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
  अर्थ - जो जितेन्द्रिय तथा साधन परायण है ऐसा श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है, और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शांति को प्राप्त हो जाता है। 
 
व्याख्या - जितेन्द्रिय अर्थात जिसने संसार के भोगों की कामना छोड़कर अपने शरीर, इन्द्रियां व मन को जीत लिया है। वह योगी परम में ही स्थित है जिसको संसार के भोग विचलित नहीं करते वह व्यक्ति जितेन्द्रिय है।    श्रद्धावान जो जितेन्द्रिय योगी है वह अगर शास्त्रों व गुरू और भगवान पर विश्वास करता है तो वह व्यक्ति श्रद्धावान होता है।    जो श्रद्धावान व जितेन्द्रिय योगी होते हैं वही ज्ञान को प्राप्त होते हैं तथा ज्ञान को प्राप्त होकर फिर परम शांति अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।  ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 4 : श्लोक 9  जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।  त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।  अर्थ - हे अर्जुन! मेरे कर्म और जन्म दिव्य है। इस प्रकार मेरे जन्म और कर्म को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। बल्कि मुझे ही प्राप्त होता है। व्याख्या - हे अर्जुन! मेरे जन्म व कर्म दिव्य है। परम प्रभु जन्म मृत्यु से सर्वथा अतीत- अजन्मा और अविनाशी है। उनका मनुष्यों में अवतार साधारण मनुष्यों की तरह नहीं होता। वे जीवों का हित करने के लिए स्वतंत्रता पूर्वक मनुष्य के रूप में जन्म धारण की लीला करते हैं। परम प्रभु के जन्म व कर्म दिव्य है। जब प्रभु जन्म लेकर इस पृथ्वी पर कर्म करते हैं, उनको आम व्यक्ति सोच भी नहीं सकता। प्रभु जब वह कर्म मनुष्य रूप में कर देते हैं, तो प्रजा के लिए वह कर्म चमत्कार से कम नहीं होता। वह कर्म दिव्य (देवताओं जैसा) होता है। निष्काम भाव से केवल दूसरों के हित के लिए कर्म करने पर वह कर्म दिव्य हो जाता है। परमात्मा ही जगत रूप से प्रकट हुए हैं। इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, कण-कण में परमात्मा के दर्शन जो योगी करने लग जाता है, वह जीव शरीर को त्यागकर (मरने के बाद) फिर आगे जन्म नहीं लेता। भगवान कह रहे हैं किन्तु मुझे यानि परम धाम को ही प्राप्त होता है।     जिसे हीरे मिल जाएं, वह कंकर-पत्थर मुट्ठी से छोड़ देता है, और जिसको महल मिल जाए, वह झोपड़ी को भूल जाता है। जिस व्यक्ति को दिव्य के दर्शन हो जाए उसके लिए संसार के सब पदार्थ कंकर-पत्थर जैसे हो जाते हैं, फिर उसको संसार में जन्म लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती, फिर वह इस लोक को छोड़ कर अलोक में प्रवेश कर जाता है।    ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 4 : श्लोक 4 अर्जुन उवाच  अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। 
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। 
अर्थ - अर्जुन बोले - आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है। अतः आपने ही सृष्टि के आरम्भ में सूर्य से यह योग कहा था यह बात मैं कैसे समझूं ? 
 
व्याख्या - अर्जुन बोले - आपका जन्म तो अभी इसी काल का है। आपका जन्म तो वासुदेव जी के घर पर हुआ है। सूर्य बहुत पुराना है अर्थात आदिकाल में हो चुका था। जब ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई थी सूर्य का जन्म तो तबका है। तब मैं इस बात को कैसे समझूं कि आप ही ने आदि काल में काले सूर्य से यह योग कहा था। अर्जुन हर ज्ञान को बारीकी से जानना चाहते है तब यह प्रश्न किया है।   ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 4 : श्लोक 5 
 
श्री भगवानुवाच  बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।। 
अर्थ - श्री भगवान बोले - हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ पर तू नहीं जानता।
 
व्याख्या - श्री भगवान बोले - हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। यहाँ अर्जुन को भगवान यह समझा रहे हैं कि तू शरीर की बात समझ रहा होगा कि आपका जन्म अभी का है। ऐसे तो तेरे व मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। भगवान इस शरीर रूपी कृष्ण की बात नहीं कर रहे है। जो अर्जुन को दृश्य रूप में दिख रहा है। भगवान तो उस आत्मा (परम) की बात कर रहे हैं, जिसका कोई जन्म नहीं होता। जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती। वह अपना स्वरूप होता है। ध्यान, समाधि, साधना से बहुत से संत पीछे के जन्मों को जान लेते हैं। पीछे के कुछ जन्मों को जान लेना एक सिद्धि होती है उसको जाना जा सकता है। ऐसे योगी कुछ सीमा तक ही पुराने जन्मों को जान सकते हैं सम्पूर्ण जन्मों को नहीं जान सकते। इसके विपरीत परम युक्त योगी कहलाते हैं। जो साधना किए बिना सिद्ध नित्य योगी है। जन्मों को जानने के लिए उन्हें वृति नहीं लगानी पड़ती। उन युक्त योगी में अपने आप सम्पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान सदा बना रहता है। भगवान आत्मा की बात कर रहे हैं आत्मा के तल तक कोई स्थिर हो जाता है वह योगी परम के साथ युक्त माना जाता है। फिर उस योगी को आप शरीर समझे तो यह आपकी मूर्खता है। बहुत से लोग कहते हैं कृष्ण तो एक शरीर की बात कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने पूरी गीता में जो ज्ञान दिया है। वह शरीर का नहीं आत्मा का है, कृष्ण अब भी अर्जुन को बता रहे हैं कि जब सूर्य नहीं था मैं तब भी था। उसमें प्रकाश नहीं था। वह काला ग्रह था तब भी मैं था। परमात्मा ने जब इस ब्रह्माण्ड को बनाया था तब सूर्य को यह योग कहा, फिर परमात्मा ने काले सूर्य में अपना प्रकाश जगमगा दिया। वह आत्मा सबके शरीरों में अब भी है पहले भी थी और आत्मा संसार का विनाश होने के बाद भी नित्य अचल रूप में हर जगह स्थित रहती है। श्री कृष्ण ने आत्मा की बात की है और जब आपको ईश्वर का साक्षात्कार (आत्म बोध) हो जाता है तब आप भी इस शरीर की बात नहीं करोगे। आप भी अपने को आत्मा में देखोगे इसलिए भगवान कह रहे हैं तू सबको नहीं जानता मैं जानता हूँ।    ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 4 का श्लोक 10  वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। 
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।
अर्थ - राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, मुझमें तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञान रूप तप से पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।  व्याख्या - जीव के एक तरफ यानि बाहर संसार माया है और दूसरी तरफ यानि भीतर ईश्वर का वास है। जब जीव भगवान का आश्रय छोड़कर संसार का आश्रय लेते हैं, तो मनुष्य में राग, भय, क्रोध, लोभ, मोह, कामना आदि सभी दोष जीव को जन्म मरण में बांध लेते हैं और जब मनुष्य शांत व स्थिर होकर इस संसार का चिन्तन करता है कि मैं कौन हूँ यह ब्रह्माण्ड कैसे बना, शरीर छोड़ने के बाद जीव कहां जाता है। इस पूरी सृष्टि को किसने बनाया। धीरे-धीरे जब मनुष्य को असत्य संसार का ज्ञान होता है तो संसार से वैराग्य हो जाता है। जैसे ही संसार का आश्रय छोड़ता है तो भगवान का आश्रय लेता है।    अब से पहले बहुत से भक्त जिनके राग, भय, क्रोध नष्ट हो गए थे वो अनन्य प्रेम पूर्वक (जो और किसी वस्तु, व्यक्ति या देवता का चिन्तन ना करता हो, यानि अन्य किसी भी चीज को चिन्तन ना करना आत्मा में ही एकीभाव स्थिर रहना अनन्य प्रेम, अनन्य भक्ति होता है) भक्त ऊपर कहे ज्ञानरूप तप (योग में स्थिर रहना ही तप है) से पवित्र होकर मेरे स्वरूप  को प्राप्त हो चुके हैं अर्थात यानि बहुत से भक्त निर्गुण निराकार को प्राप्त हो चुके है।    ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 9 : श्लोक 10  मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।  
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। 
अर्थ- प्रकृति मेरी अध्यक्षता में चराचर सहित सम्पूर्ण जगत की रचना करती है हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतु से जगत का परिवर्तन होता है
 
व्याख्या - कृष्ण कहते हैं प्रकृति मेरी अध्यक्षता में चर-अचर सहित सम्पूर्ण  जगत की रचना करती है परमात्मा ही प्रकृति को अधीन करके इस सम्पूर्ण जगत को बार-बार रचते और मिटाते हैं यही परम की लीला है कृष्ण ने कहा है मेरी अध्यक्षता में सम्पूर्ण जगत की रचना होती है इस सूत्र को आइऐ अच्छे से जानते हैं।  परमात्मा की जहाँ मौजूदगी होती है, वहाँ परमात्मा की मौजूदगी से ही प्रकृति जगत को  रच लेती है, जैसे सूर्य निकलता है और फूल खिल जाते हैं, ऐसा तो नहीं कि सूर्य एक-एक फूल को पकड़-पकड़  कर खिलाता है, बस सूर्य तो निकलता है बस उसकी मौजूदगी से फूल खिल जाते हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं, सूर्य की किरणों की मौजूदगी काफी है कि हवा में ऑक्सीजन बढ जाती है और उसकी मौजूदगी से नींद टूट जाती है और आप उठ जाते हो।     अगर आप शांत स्थिर होकर देखते हो तो सब जगह परमात्मा एक सर्जन का प्रवाह है और जहाँ भी परमात्मा की मौजूदगी है वहीं अंनत-अंनत रूपों में सर्जन होने लगता है फूल खिल उठते हैं, गीत का जन्म होने लगता है।    जहाँ भी कुछ जन्म रहा हो जैसे कहीं फूल ही जन्म रहा हो, वहाँ मौन होकर बैठ जाना, अगर एक कली फूल बन रही हो उस जगह शांत होकर सर्जन होती प्रकृति को महसूस  करना, उस फूल को तोड़कर मंदिर की तरफ मत भागना कि फूल को मंदिर में चढाऊंगा, जहाँ भी कोई चीज पैदा हो रही हो, चाहे सुबह का जन्म हो रहा हो या सांझ डूब रही हो या रात का आखिरी तारा डूब रहा हो और सुबह आ रही हो, वहाँ रूक जाना, वहाँ शांत होकर बैठ जाना और उस शून्य के साथ युक्त हो जाना वहीं आपको परमात्मा की उपस्थिति अनुभव हो जाएगी जैसे सूरज की मौजूदगी से फूल अपने आप खिल उठते हैं, कृष्ण कहते हैं ऐसे ही मेरी उपस्थिति से चर-अचर जगत की रचना हो जाती है।    ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 12 : श्लोक 15  यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। 
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।
 
अर्थ - जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता और स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, ईर्ष्या, भय, उद्वेग से मुक्त है, वह मुझे प्रिय है।  व्याख्या - भक्त सब प्राणियों और सर्वत्र (कण-कण में) अपने परम प्रभु को ही देखता है, सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान की लीला हो रही है। ऐसे जानने वाले भक्त से कौन उद्वेग हो सकता है। परम प्रभु के भक्त सब प्राणियों का भला करते हैं। असुरी प्रवृति के लोग भी जो लोगों से द्वेष रखने वाले होते हैं वह भी प्रभु भक्त के दर्शन करके उनसे वार्तालाप करके असुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो जाते हैं। परम प्रभु का भक्त बनने पर भक्त के शत्रु मित्र होते ही नहीं, भक्त का एक परमात्मा ही होता है सबसे प्रिय। भक्त फिर सबमें परमात्मा का ही वास देखते हैं। ना भक्त से कोई द्वेष भाव रखता ना भक्त किसी प्राणी से द्वेष भाव रखते, परमात्मा के भक्त भय और उद्वेग की हलचल से दूर हो जाते हैं। भगवान कहते हैं कि ऐसे भक्त मुझे प्रिय है। भक्त की दृष्टि में एक परम के सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं फिर वह किससे उद्वेग, ईर्ष्या, भय करें ?  ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 18 : श्लोक 10  न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। 
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।। 
अर्थ- जो अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह त्यागी, बुद्धिमान, संदेह रहित और अपने स्वरूप में स्थित है। 
 
व्याख्या - इस श्लोक का भावार्थ यह है कि राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। मनुष्य का स्वभाव है कि वह रागपूर्वक ग्रहण करता है और द्वेष पूर्वक त्याग करता है। दोनों से ही संसार के बन्धन होते हैं। भगवान कहते हैं, श्रेष्ठ पुरूष वही होता है जो संसार का ग्रहण तो करता है, परन्तु राग पूर्वक नहीं करता और सभी कर्मों का त्याग तो करता है, परन्तु द्वेषपूर्वक नहीं करता। जो ऐसे सम साधक हैं, वही बुद्धिमान और संशयों से रहित है। वही अपने स्वरूप (आत्मा) में स्थित है।  ∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞∞ अध्याय 18 : श्लोक 66  सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। 
अर्थ - सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आजा (आत्मा की) मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा। चिन्ता मत कर
 
व्याख्या - सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय (शरण) छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा अर्थात्् भगवान कह रहे हैं सम्पूर्ण धर्मों को छोड़कर-मनुष्य के धर्म और कर्म प्रकृति के गुणों के स्वभाव अनुसार बने हैं तू उन सब धर्मों को छोड़कर मेरी (आत्मा की) शरण में आ जा। आत्मा ही परमात्मा है अब परमात्मा की शरण में जाने के लिए क्या करना पड़ता है या तो योग में युक्त होकर यानि मन को सम (स्थिर) करके भगवान के लिए कर्मयोग के मार्ग पर चल या इस अध्याय के श्लोक 51, 52, 53 में सांख्ययोग के मार्ग पर चल, दोनों ही मार्ग मुक्ति देने वाले हैं। इसलिए भगवान सब धर्मों को छोड़कर अपने को आत्मा की शरण आने को कह रहे हैं। भगवान कह रहे हैं तू मेरी शरण आकर युद्ध कर, मैं तूझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर।  सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय प्रकृति के तीनों गुणों का आश्रय लेना होता है, उन तीनों गुणों का आश्रय छोड़कर केवल ‘एकम् माम’ यानि एक मुझ परमात्मा की शरण आ जाना ही मोक्ष में आ जाना होता है।  संसार का आश्रय छोड़कर साधक आत्मा की शरण चला जाता है तब मृत्यु के बाद शरीर यहीं पाँच तत्व में मिल जाता है और जीवात्मा (मन) की इच्छाएँ पहले ही शून्य हो चुकी थी तब मन भी शरीर के साथ मरा हुआ माना जाता है, शरीर और मन मरने के बाद बचती है आत्मा फिर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। बूँद सागर में मिलकर खुद सागर बन जाती है। उसी को भगवान ने परमधाम, परमगति, सत चित आनन्द कहा है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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